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कभी कभार एक कप चाय पर हुई 4 मिनट 30 सेकेंड की हल्की बातचीत भी बहुत गहरा अनुभव छोड़ जाती है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ उस दिन हुआ, जब मैं अपने ही कलीग के साथ ऑफिस के पास की दुकान पर चाय पीने शाम को निकली. मेरे ये साथी पत्रकार भले ही मेरे बहुत करीब लोगों में से न हो, लेकिन उनके खुले अंदाज में कही हुई एक बात ने एक गहरा प्रश्न मेरे जहन में छोड़ दिया.चाय पीने के साथ ही सिगरेट का कश मारते हुए कहा कि क्या तुम भी सिगरेट पीती हो मैं अभी जवाब देने की भूमिका बांध ही रही थी, कि उन्होंने हंसते हुए कहा, तुम कहां पीती होगी तुम उस तरह की लगती नहीं हो. और मैंने अपना जवाब देने से पहले ही अपने शब्दों को खुद के भीतर दबा लिया. मैं रात भर ये सोचती रही कि क्या कुछ इंचो की सिगरेट किसी लड़की के पीने से उसका चरित्र चित्रण कर सकती है. यहां पर मैं लड़कियों के सिगरेट पीने की पैरवी नहीं कर रही, बस इतना कहना चाहती हूं. कि,ये कैसा दोहरे मापदंडों वाला समाज है. जो कि एक पुरूष के एब को उसका स्टेटस सिंबल या फिर मर्दों में छिपा एक केवल एक एब मानता है. बल्कि वही अगर कोई लड़की इसे पीती है, तो उसे चरित्रहीन और ओछी मानसिकता से देख जाता है. इसके पीछे लॉजिक क्या है, ये मुझे आज तक कोई नहीं बता पाया. लेकिन जब मैंने खुद मैं इस सवाल की खोजा, तो मुझे खुद से सिर्फ एक ही जवाब मिला कि हम एक ऐसे समाज मैं पैदा हुई लड़कियां है. जहां लड़कियों की छवि को शीशे सामन बनाया गया है. जिसमें जरा सी धूल भी लोगों की आखों में खटकती है. जबकि इस समाज का पुरूष लोहे के सरिये के समान है. जिसे हर तरह की परिस्थितीयों में ठोस ही माना जाता है. इज्जत चाहे अपने घर की हो, मुहल्ले की या फिर पूरे गांव की इसका पूरा दारोमदार उस लड़की के कंधों पर डाल दिया जाता है. जो एक असल आम इंसान ही है, अच्छी और बुरी आदतें उसमें भी हो सकती है. लेकिन पुरूष अपने घर, मुहल्ले, गांव का ऐसा शख्स है. जो हजार गलतियां कर लें लेकिन उन्हें छिपाने के लिए उसका पुरूष होना ही काफी है. हम लड़कियां आज भले ही पतंग की तरह जितना मर्जी आसमां की ऊचांईयों को छू रही हो ,लेकिन हकीकत यही है, कि अंत में हमारी डोर या तो खींच दी जाती है. या फिर कटकर आसमां से लड़खड़ाती हुई जमीं पर आ गिरती है.
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